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त्रिलोचना कौर

 

 

  दोहे

छलक-छलक आगे बढ़े, नदी बहाये नीर।
घाट घाट मिटती चले, सबके मन की पीर।।

टहनी से पत्ते झरे, फूल हो गये सुस्त ।
दरवाजे पर शीत के, धुंध टहलती चुस्त ।।

सूरज बड़ा उदास है, मौसम भी बेजार।
धूप रुठकर छुप गई, किस बादल के पार।।

आत्म चेतना की दशा, गूँजे अनहद नाद।
सुनो धरा से गगन तक, मौन भरा संवाद।।

यौवन उमड़ा फाग का, करे फूल से प्यार।
रंग- बिरंगे दृश्य हैं, धरा करे शृंगार।।

व्यर्थ गई यह जिंदगी, मन मे उठता द्वंद्व ।
बीत रहा यह जन्म भी, गिन श्वासों के छंद।।

चलते, फिरते, दौड़ते, हैं माटी के फूल।
चार दिवस की जिंदगी, कहीं न जाए भूल।।

१ नवंबर २०१७

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