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महेश नारायण
की लंबी कविता स्वप्न के कुछ अंश

इस कविता को हिंदी में
मुक्त-छंद की पहली कविता माना जाता है।

 

स्वप्न

प्रेम

उस दिन से हुई
गले का उसका मैं हार
और खूब ही मैं
उसको करती थी प्यार
मिलती थी मैं रोज
उससे जा एक वन में
फिरती थी मैं साथ
उसके उस कानन में
थे बीतते दिन इसी तरह से
वह प्यार के दिन अहा!
इसी तरह से
दुनिया से हमें नहीं था
कुछ सरोकार
हम उसके
हमारा था वह संसार
नयनों की चमक को देख
उसकी जीती थी मैं
वह था हमसे खुश
हम थे उससे प्रसन्न
दिल थे मेरे खुश
मन थे मेरे प्रसन्न
बड़े बहार के दिन थे वह
हाय बीत गए
वह दिन कि शौक से कटते थे
हाय बीत गए!

प्रकृति


और एक झरना
बहुत शफ़्फ़ाक था,
बर्फ़ के मानिन्द पानी साफ़ था,-
आरम्भ कहाँ है कैसे था वह मालूम नहीं हो:
पर उस की बहार,
हीरे की हो धारा,
मोती का हो गर खेत,
कुन्दन की हो वर्षा,
और विद्युत की छटा तिर्छी पड़े
उन पै गर आकर,
तो भी वह
विचित्र चित्र सा माकूल न हो।


पानी पड़ने लगा वह मूसल धार
मानों इन्द्र की द्वार खुली हो।
बादल की गरज से जी दहलता
बिजली की चमक से आँखैं झिपतीं
बायु की लपट से दिल था हिलता
आंधी से अधिक अंधारी बढ़ती।


सौंदर्य


बिजली की चमक में
रौशन हुआ चेहरा
देखा तो परी है
नाजों से भरी है
घुँघर वाले बाल
मखमल के दो गाल
तवा नाज़ुक प उस के कुछ था मलाल
बाल विखरे थे वस्त्र का न ख्याल
लाव रायता गुलाबी
सूखी थी एक ज़रीसी।
सुन्दर कोमलता उसकी
जस तीक्ष्ण हवा उस में हो लगी-
मानो पद्मम को तोड़ पहाड़ पर लाया हो।


मुख मलीन मृग लोचन शुष्क
शशि की कला में बहार नहीं थी;
लबे दबे यौवन उभरे
रति की छटा रलार नहीं थी।
अरव, हवस, अफ्सोस, उम्मीद,
प्रेम-प्रकाश, भय चंचल चित्र
थे यह सब रुख़ पर नुमायाँ उसके,
कभी यह कभी वह,
कभी वह कभी यह,
मुख चन्द्र निहार हो यह
विचार कि प्रेम करूँ
दया दिखलाऊँ।

१८ अक्तूबर २०१०

 

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