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दिव्यनिधि शर्मा

तीन गीत

एक

गर जग में मेरा गीत न होता
गूँगी पीर ब्याहता कौन

बिकती न आहों की गठरी मुस्कानों की मंडी में
वरमाल किसे पहनाती तृष्णा तृप्ति की पगडंडी में
अपयश किसे सुनाता किस्से और उनको गीत बनाता कौन
गर जग में मेरा गीत न होता
गूँगी पीर ब्याहता कौन

चाह तो होती पर चाहत पर मिटना ही बस धर्म न होता
गुस्ताख़ हवा गुस्ताख़ न होती बेशर्म प्यार बेशर्म न होता
कौन पवन बन आता सुमुखि आँचल को सरकाता कौन
गर जग में मेरा गीत न होता
गूँगी पीर ब्याहता कौन

दो

माँग सूनी है निशा की हर कदम पर तम खड़ा है
कैसे छिटके चाँदनी जब चाँद पर घूँघट पड़ा है

गीत जब मैं गाऊँगा घूँघट सरक कर ही रहेगा
रूठा है अमृत कलश औ प्याले देखें यह तमाशा
निष्ठुर बनेगा कब तलक वे द्वार पर जब कंठ प्यासा
सुन सदा मतवाले की मधुघट
छलक कर ही रहेगा

साज़ पे पहरा लगा लो गीत को तुम बंद कर लो
कंठ कोई सुर न छेड़े मौन से अनुबंध कर लो
पर देख लेगा जब पिया को कंगन
खनक कर ही रहेगा


तीन

क्रूर काल के कुटिल करों से
हम तुम दोनों छले गये

बंद जान कर द्वार को मेरे आये प्रिय और चले गये
क्रूर काल के कुटिल करों से
हम तुम दोनों छले गये

इतना भी तुमसे न हुआ कि आकर मेरा नाम उचारो
क्रूर काल के कुटिल करों से
हम तुम दोनों छले गये

बंद इसलिये किये द्वार थे तुम आओ और मुझे पुकारो
क्रूर काल के कुटिल करों से
हम तुम दोनों छले गये

८ जून २००३

 

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