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विनोद शर्मा की
छह छोटी कविताएँ

 

मैं नहीं जानता

जिस शहर में
नैतिकता के मुद्दे पर बुद्धिजीवी
उन वकीलों की तरह बहस करते हों-
जो केस जिताने का झूठा वादा कर
अपनी फीस के नाम पर
ऐंठ चुके हैं हत्यारों से मोटी रकम-
वहाँ, बुद्धिजीवियों की
उस कभी न खत्म होने वाली बहस में
हस्तक्षेप करने के लिए
मुझे कैसी कविता लिखनी चाहिए
मैं नहीं जानता!

 

 

तुम और मैं

मैं पुरुष हूँ
सृष्टि की बाँसुरी का स्वर
मगर नश्वर
तुम स्त्री हो
नश्वर तुम भी हो
मगर पुरुष के प्यार को
स्वीकार कर
उसे अमर करने में हो समर्थ!
प्रकृति, ईश्वर के मुख से निकला
पहला और अंतिम शब्द
तुम हो जिसका गूढ़ अर्थ!

  एकांत-१

एकांत में
फ़ुर्सत मिलते ही
घेर लेते हैं उसे कई लोग-
वे जो, उसे पता है, उससे घृणा करते हैं
और जिनसे वह घृणा करता है
वे भी!

 एकांत-२

शयनकक्ष में
नितांत अकेले नहीं हैं
एक-दूसरे की देह में सुख तलाशते
पति-पत्नी भी
पति के मन में बसी प्रेमिका
और पत्नी के मन में बसा प्रेमी-
वे दो व्यक्ति भी तो
मौजूद हैं वहाँ
उन दोनों के सिवा
दोनों में से हर एक सोचता है-
तीन तो ठीक हैं पर यह चौथा
और पूछता है खुद से-
यह चौथा व्यक्ति कौन है?
यही प्रश्न तो
उन दोनों के बीच पसरा हुआ मौन है!
 

एकांत-३

सूर्यास्त होते ही
पसर जाता है मेरे भीतर और बाहर
अंधकार
बाहर वह जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं
जो सिर्फ़ नाम है सूर्य की अनुपस्थिति का
भीतर वह
जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं
जो सिर्फ़ नाम है, तुम्हारी अनुपस्थिति का
जब तक तुम्हारे प्यार की
अनुपस्थिति का अंधेरा
इन दोनों अंधेरों के साथ मिलकर
मुझ पर आक्रमण नहीं करता
जीना संभव है!

एकांत-४

रात के घिरते ही
पढ़ने लगता हूँ मैं अपनी प्रेम कविताएँ
करने लगता हूँ आविष्कार
प्यार के दिव्य रंगों का
रंगने के लिए अपने स्वप्न
छुपाने के लिए अपनी हताशा
निरीहिता और रिक्तता
इस बात से बेखबर
कि सुबह तुम मुझे मिलोगी
इन्हीं रंगों में छिपाए हुए खुद को!

१० अगस्त २००९

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