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प्रो. विश्वंभर शुक्ल
की रचनाएँ

 

बरस रही है आग (छह क्षणिकाएँ)



तनी गरमी, लू-लपट
बरस रही है आग
फिर भी तो फुरसत नहीं
भाग, ज़िंदगी भाग !

बिजली, पंखा, कूलर, ए सी
खस-खस वाली घास
हुई ज़िन्दगी यार, चिपचिपी
गरम गरम एहसास !

हाँफ रहे कूचे-गलियारे
धूल फाँकते गाँव
पसर गई निदिया बेखटके
मिली नीम की छाँव !

छापर के नीचे सोये हैं
बचपन और दुलार
शीतल आँचल
शिशु का संबल
माँ तेरा आभार !

तपती दुपहर, गरम पसीना
और खेत में काम
मेहनत वाले
हाथ न रुकते, क्या छैंया
क्या घाम!

थमती कहाँ ज़िंदगी यारों
नरम गरम हैं रूप
आओ कोई छाँव तलाशें
बहुत कड़ी है धूप !

१५ अप्रैल २०१३

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