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हरिवल्लभ शर्मा
के मुक्तक

  मुक्तक

मशअले हैं राज मत खुलवाइये
आँख नम हो सोज गम हो गाइए
कुछ हसूँ मैं आप भी मुस्काइये
मुस्कुराने की वजह क्या चाहिए

कभी मुद्दई कभी मुन्सिफ, तो पैरोकार है यारो
कभी चिमटा कभी झाड़ू, लो खिदमतगार है यारो
क़फ़स में रोटियाँ के संग, पनीली दाल मिल जाये
उसी के हुक्म से जीना, घरू सरकार है यारो

पर अभी बौछार का मौसम नहीं हैं
इस तरह के वार का मौसम नहीं हैं
है धरा फैलाये बैठी धान जग में
बादलों की तार का मौसम नहीं हैं

सोचते सोचते सोचते ही रहे
कारवाँ बढ़ गया देखते ही रहे.
फिक्र में हम रहे लोग बोलें न कुछ?
लोग मर्जी पड़ी बोलते ही रहे

सींच रहे है जहर फसल पे जब हम भैया
सोचें कैसे बच पाये भोली गौरैया
होगा कैसे पितृ मोक्ष जब बचें न कागा
पोलीथिन को निगल निगल मरती है गैया

चलीं कुछ बदलियाँ हैं चाँद से अठखेलियाँ करने
निडर जुल्फें चलीं रुखसार से नादानियाँ करने
फिज़ा में घुल रही हैं रोनकें मोहक शरारों की
चले झोंके हैं बासंती तेरी सरगोशियाँ करने

२७ अप्रैल २०१५

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