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कार्यशाला-३
नवगीत की दूसरी कार्यशाला में सबने
'सुख-दुख जीवन में' विषय पर नवगीत लिखने का अभ्यास किया। कार्यशाला में नये पुराने
१९ कवियों ने भाग लिया। इन रचनाओं पर जिन विद्वानों ने टिप्पणी की उनके नाम हैं- शास्त्री नित्यगोपाल कटारे और डॉ. जगदीश व्योम

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

१- सुख-दुख आना-जाना

सुख-दुख आना-जाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख की है कल्पना पुरानी
स्वर्गलोक की कथा कहानी
सत्य-झूठ कुछ भी हो लेकिन
है मन को भरमाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख के साधन बहुत जुटाए
सुख को किन्तु ख़रीद न पाए
थैली लेकर फिरे ढूँढते
सुख किस हाट बिकाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

आस-डोर से बँधी सवारी
सुख-दुख खीचें बारी-बारी
कहे कबीरा दो पाटन में
सारा जगत पिसाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जब-जब किया सुखों का लेखा
सुख को पता बदलते देखा
किन्तु सदा ही इसके पीछे
दुख पाया लिपटाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जीवन की अनुभूति इसी में
द्वेष इसी में प्रीति इसी में
इसी खाद-पानी पर पलकर
जीवन कुसुम फुलाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

--अमित

३-सुख दुख दो पाट नदी के

सुख दुख दोनों जीवन में
दो पाट नदी के...

ग्रीष्म ॠतु की सूर्य तपन को सहना है
नेह नीर थोड़ा है फिर भी रहना है
थोड़े ही दिन के दिन हैं
दिन त्रासदी के...

वर्षा आएगी हर्षा कर जाएगी
हरियाली भी खुशहाली दे जाएगी
आँखों में सपने नाचेंगे
सप्तपदी के

माना ठिठुरन रण प्रांगण में लाशें हैं
फिर भी कुछ तो इनमें जीवित साँसें हैं
जो हाथों में रहती
नेकी और बदी के

--गिरिमोहन गुरू

५- सुख जीवन में

सुख जीवन में मीठी छाया
बौराया दुख काला साया
सुख दुख का
रिश्ता गहराया

सुख आए
जीवन खिल जाए
दुख के बादल
आस लगाएँ
लुकाछिपी में जीवन काया
तारों की यह कैसी माया
सुख दुख का
रिश्ता गहराया

संताप कटे
और चैन मिले
सुख के दिन
अनमोल लगे
भ्रमर ताल में नाच नचाया
जीवन का रस पूरा पाया
सुख दुख का
रिश्ता गहराया

--अर्बुदा ओहरी

७- सुख दुख

सुख दुख
सिक्के के दो पहलू
ज्यों सुविधा दुविधा जीवन में

कभी अमावस रात घनेरी
लगे कभी पूनम पग फेरी
घटते-बढ़ते
चंदा पाहुन
ले उतरे डोली आँगन में

सपनों के बुझते अलाव हों
थके हुए सारे चिराग हों
अंधकार
हरने को लाए
हम जुगनू अपने आँचल में

नीरव में गूँजे गान कहीं
मुखरित होते हैं मौन वहीं
जब निज को ही
पहचान लिया
कोयल कूके मन उपवन में

मृगतृष्णा-सी छलना देखी
भाग्यरेख अनकही अलेखी
कण-कण
लिए नवयुग निमंत्रण
प्रभुता ढूँढो जड़ चेतन में

--वंदना सिंह

२-सुख दुख इस जीवन में

मन से ही उत्पन्न हुए हैं
खो जाते हैं मन में
आते हैं जाते हैं
सुख दुख इस जीवन में।

हो मन के अनुकूल
उसे ही सुख कहते हैं
मन से जो प्रतिकूल
उसे ही दुख कहते हैं
गमनागमन किया करते हैं
इच्छा के वाहन में
आते हैं जाते हैं
सुख दुख इस जीवन में।

दूल्हे जैसा सर्व प्रतीक्षित
सुख आता है
अनचाहे मेहमान सरीखा
दुख जाता है
एक गया तो दूजा आया
पड़ें न उलझन में
आते हैं जाते हैं
सुख दुख इस जीवन में।

सुख फूलों-सा मनमोहक
सुन्दर दिखता है
फिर दुख आता हे तो
काँटों सा चुभता है
एक हँसाता एक रुलाता
क्रमशः मन के वन में
आते हैं जाते हैं
सुख दुख इस जीवन में।

दोनों का ही कुछ स्वतन्त्र
अस्तित्व नहीं हे
और किसी का कुछ भी
स्थायित्व नहीं
दुख भोगा सुख की तलाश में
मिला न तन धन में
आते हैं जाते हैं
सुख दुख इस जीवन में।

-विपन्नबुद्धि

 

४-सुख की नैया

सुख की नैया मद्धम डोले
सुख की नैया मद्धम डोले
दुख छिप कर अपना मुख खोले

सुख दुख दो पहिए जीवन के
इक बहके तो दूजा टोके
अलग-अलग न पार लगे
साथ चले दोऊ हौले-हौले

सुख की नैया मद्धम डोले
दुख छिप कर अपना मुख खोले

दिवस बिना रैना न चमके
एक ढ़ले तो दूजा दमके
उजियारा अंधियारा पाख
इक जागे जब दूजा सोले

सुख की नैया मद्धम डोले
दुख छिप कर अपना मुख खोले

--पारुल पुखराज

 

६- मन की बात

मन की बात
बताऊँ, रामा!
सुख की कलियाँ
गिरह बाँधूँ
नदिया पीर बहाऊँ, रामा!

माथे की तो पढ़ न पाई
आखर भाषा समझ न आई
नियति खेले आँख मिचौनी
अँखियाँ रह गईं
बँधी बँधाई।
हाथ थाम,
कर डगर सुझाए
ऐसा मीत बनाऊँ, रामा!

कभी दोपहरी झुलसी देहरी
आन मिली शीतल पुरवाई
कभी अमावस रात घनेरी
जुगनू थामे
जोत जलाई
विधना की
अनबूझ पहेली
किस विध अब सुलझाऊँ, रामा!

ताल तलैया, पोखर झरने
देखें अम्बर आस लगाए
नैना पल-पल सावन ढूँढ़ें
बरसे,
मन अंगना हरियाए
धीर धरा,
पतझार बुहारी
रुत वसंत मनाऊँ, रामा!
मन की बात बताऊँ, रामा!

--शशि पाधा


कार्यशाला-
३ अगस्त २००९

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