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कार्यशाला-१३
नवगीत का पाठशाला में पिछले माह आयोजित की गई- तेरहवीं कार्यशाला जिसका विषय था
'सड़क पर'। कार्यशाला में नये पुराने रचनाकारों की १२ रचनाएँ प्रकाशित की गईं। चुनी हुई १० रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

१- सड़कों पर

सड़कों पर हो रही सभाएँ
राजा को-
धुन रही व्यथाएँ

प्रजा
कष्ट में चुप बैठी थी
शासक की किस्मत ऐंठी थी
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
राजतंत्र की हुई ठिठोली
अखबारों-
में छपी कथाएँ

दुनिया भर
में आग लग गई
हर हिटलर की वाट लग गई
सहनशीलता थक कर टूटी
प्रजातंत्र की चिटकी बूटी
दुनिया को-
मथ रही हवाएँ

जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ

-पूर्णिमा वर्मन

३- सड़कों पर

कृष्णकाय सड़कों पर
सभ्यता चली है

यौवन-जरा में अनबन
भगवा-हरा लड़े हैं
छोटे सड़क से उतरें
यह चाहते बड़े हैं
गति को गले लगाकर
नफरत यहाँ फली है

है भागती अमीरी
सड़कों के मध्य जाकर
है तड़पती गरीबी
पहियों के नीचे आकर
काली इसी लहू से
हर सड़क हर गली है

ओ शंख चक्र धारी
अब तो उतर धरा पर
सब काले रास्तों को
इक बार फिर हरा कर
कब से समय के दिल में
ये लालसा पली है

--धर्मेन्द्र कुमार सिंह

५- बड़े गाँव की छिद्दनबाई

गचम पेल सड़कों पर देखी
देख देख बुद्धि चकराई
किसी काम से दिल्ली आई
बड़े गांव की छिद्दनबाई

सड़कों पर थी पेलम पेला
कारें जीप बसें और ठेला
चारों ओर दिख रहा उसको
जैसे लगा महादेव मेला
दोपहर रात शाम भुनसारे
वाहन देख नयन थक हारे
अविरल द्दष्टि लगी सड़क पर‌
हिली डुली न डर के मारे
पुरुष और नारी में अंतर‌
बड़ी देर तक समझ न पाई

फुटपाथों पर छिटके छिटके
लिपे पुते से लोग लुगाई
अपने अपने कामदेव को
लेकर रति साथ में आई
कभी कभी तो ऐसा लगता
लैला मजनूं पिघल रहे हों
चपल रोमियों किसी जूलियट
को आँखों से निगल रहे हों
बड़ी सड़क के बड़े अजूबे
देख देख कर बहुत लजाई

तभी अचानक किसी कार पर‌
कोई बड़ा डंपर चढ़ आया
जैसे लोहे के प्रहार से
टूटा बर्फ और छितराया
कोई गया सुरलोक किसी का
हाथ किसी का फूटा माथा
पतिहीना हुई कोई अभागी
हुआ कोई विकलांग अनाथा
देख अनोखे गज़ब तमाशे
चीखी रोई और चिल्लाई

--प्रभु दयाल

७- सड़क पर
 
कहीं है जमूरा, कहीं है मदारी
नचते-नचाते मनुज ही सड़क पर

जो पिंजरे में कैदी वो किस्मत बताता
नसीबों के मारे को
सपना दिखाता
जो बनता है दाता वही है भिखारी
लुटते-लुटाते मनुज ही सड़क पर


साँसों की भट्टी में आसों का ईंधन
प्यासों की रसों को
खींचे तन-इंजन
न मंजिल, न रहें, न चाहें, न वाहें
खटते-खटाते मनुज ही सड़क पर


चूल्हा न दाना, मुखारी न खाना
दर्दों की पूंजी,
दुखों का बयाना
सड़क आबो-दाना, सड़क मालखाना
सपने-सजाते मनुज ही सड़क पर


कुटी की चिरौरी महल कर रहे हैं
उगाते हैं वे
ये फसल चर रहे हैं
वे बे-घर, ये बा-घर, ये मालिक वो चाकर
ठगते-ठगाते मनुज ही सड़क पर


जो पंडा, वो झंडा जो बाकी वो डंडा
हुई प्याज मंहगी
औ' सस्ता है अंडा
नहीं खौलता खून पानी है ठंडा
पिटते-पिटाते मनुज ही सड़क पर

--संजीव सलिल

९- होते सारे काम सड़क पर

नामी या बेनाम सड़क पर
होते सारे काम सड़क पर

जब देश लूटता राजा
कोई करे
कहाँ शिकायत,
संसद में बैठे दागी
एकजुट हो
करें हिमायत
बेहयाई नहीं टूटती,
रोज़ उठें तूफ़ान सड़क पर।

दूरदर्शनी बने हुए
इस दौर के
भोण्डे तुक्कड़,
सरस्वती के सब बेटे
हैं घूमते
बनकर फक्कड़
अपमान का गरल पी रहा
ग़ालिब का दीवान सड़क पर ।

खेत छिने, खलिहान लुटे
बिका घर भी
कंगाल हुए,
रोटी, कपड़ा, मन का चैन
लूटें बाज,
बदहाल हुए
फ़सलों पर बन रहे भवन
किसान लहूलुहान सड़क पर।

मैली चादर रिश्तों की
धुलती नहीं
सूखा पानी,
दम घुटकर विश्वास मरा
कसम-सूली
चढ़ी जवानी;
उम्र बीतने पर दिया है

-रामेश्वर कांबोज हिमांशु

२- सड़क पर जिंदगी

अँधेरों में भी
चलती है, उजालों में मचलती है
सड़क पर जि़ंदगी फिर क्यों
हवाओं में उछलती है

कभी गुमनाम
होती है कभी हमनाम होती है
कभी इंसान की खातिर
महज बदनाम होती है
उठाकर चार
कांधों पर तेरी मैयत निकलती है

सड़क पर आदमी
कुछ तो, सड़क पर बेबसी कुछ तो
निवालों की जगह मिट्टी,
सड़क पर बेरूखी कुछ तो
कई तस्वीर हैं
इसकी जो गिरती है, संभलती है।

समंदर की
निगाहों में, महज पानी समाया था
मगर सूखी नदी को तो
वो सूखा ठूंट भाया था
उदासी के
घरौंदों में तो बस आशi ही पलती है

-महेश सोनी

 

४- सड़क पर

चलें रीति से नीति निभाते
मीत सड़क पर

हौले हौले कदम उठायें
इधर उधर भी नज़र फिरायें
बेमतलब ना दौड़ लगायें
अवरोधक पे
पल भर थम जायें
सोचें फिर रुक कर
चलें रीति से - नीति निभाते -
मीत सड़क पर

जीवन है मारग जैसा ही
रखवाली की गरज इसे भी
जिसने इसकी अनदेखी की
उसकी हालत
सब जानें, होती
बद से भी बदतर
चलें रीति से - नीति निभाते -
मीत सड़क पर

दौनों होते नये पुराने
दौनों के सँग लोग सयाने
दौनों 'निविदा' के दीवाने
दौनों सब से
लेते हैं हक से
अपना-अपना 'कर'
चलें रीति से - नीति निभाते -
मीत सड़क पर

-नवीन चंद्र चतुर्वेदी

 

६- आँगन में उतरे

आँगन में उतरे जो साए,
विस्फोटों से दिल दहलाए।
तड़-तड़ करके ऐसे चीखे,
घरवालों को मौत सुलाए।

पाँव बड़े
आतंक के देखे,
रह गए सारे
हक्के-बक्के।
ख़ून-ख़राबा, गोला-बारी
गलियाँ सूनी मरघट चहके।
पौरुषता को कभी न भाये।

धर्म-जुर्म का
गहरा नाता,
सहमी बहना
सहमा भ्राता।
आचार संहिता दम तोड़े तो
दुर्बल कोई न्याय न पाता,
सबको दहशत से धमकाए।

अजगर भय का
जग को लीले,
कृष्ण ही आकर
इसको कीलें।
एक नहीं अब कई चाहिए
शिव जो उग्रवाद को पीलें,
ऐसा ज़हर कौन पी पाए?

--निर्मल सिद्धू

 

८- मेरे दर पे सड़क

ट्रैफ़िक भरी
मेरे दर पे सड़क
घर है सड़क पे
कि घर पे सड़क

ज़ोरों का बाजा
हुल्लड़ नाच शादी
उत्सव जनम का
मरन की मुनादी
बरसे हैं सब
याने सर पे सड़क

बैठक में करती
ट्रैफ़िक जाम अक्सर
गर्दो धुआँ हॉर्न
कोहराम अक्सर
उसकी है
सोफ़ा कव्हर पे सड़क

छोटा झरोखा
नहानी में घुसकर
ठंडा करे क्या
जुलूस और बैनर
साबुन पे मै हूँ
शावर पे सड़क

अनचीन्हे मुख
बेतकल्लुफ़-सी बातें
ज़िन्दा करे ये
मरे रिश्ते नाते
चढ़ती है
लंच और डिनर पे सड़क

-अनिरुद्ध नीरव

 

१०- सड़क के दोनो किनारे

सड़क के दोनो किनारे
कोई झंडा गाड़ बैठा
किस तरह बीमार बैठा

चुप रहेंगी वंशियाँ भी
बोलने वालों के आगे
रंग मटमैले लगेंगे
चल रहे मौसम अभागे
गंध भी टहलेगी लेकिन
है प्रतीक्षित खार बैठा

यह सदी भी खास होगी
है नहीं आसार इसका
आदमी जो गुम हुआ है
मूल्य उसका भार इसका
मापनों परिमापनों का
दिन बहुत कुछ हार बैठा

जिंदगी नंगी अकेली
चल पड़ी है बस्तियों में
मुट्ठियाँ भींचे चलीं
सैलानियों की कश्तियों में
रात को बेआबरू कर
एक पहरेदार बैठा

--अश्विनी कुमार आलोक


कार्यशाला- १३
१८ अप्रैल २०११

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