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एक था अशोक
 

वह पनप रहा था
इतिहास के वर्षा वन में
उपेक्षाओं की खरपतवार से लड़ते भिड़ते

ईर्ष्या द्वेष
के मैदान पसरे हुए थे उसके समक्ष
मित्र पीठ पर छुरी की तरह धँसे थे
शत्रु दे रहे थे सिंहासन पर पहरा

उसका कद बढ़ता था कि मुसीबतें
मुश्किल था कहना

प्रेम के वैभव से कोसों दूर
वीरता के विराट में
पूरा भारतवर्ष
उसकी भुजाओं में जान पड़ता था
जो भुजाएँ उसकी नहीं थी
कट रही थीं

वह बढ़ रहा था
कलिंग में
रक्त की नदियां
उसके मस्तकाभिषेक की तैयारी में जुटी थीं

उसके कदम बढ़ रहे थे
पर मन लौट रहा था
गगनचुंबी देह के पत्ते पीले पड़ रहे थे
आत्मा के आँगन में पतझड़ की उदासी आ बैठी थी
यही वह क्षण था
जिसमें झर रही थी अश्रुओं के साथ
जीतने की सारी इच्छाएँ
अब वह लौट रहा था
और मन आगे बढ़ रहा था
यही वह पल था जिसमें
वह अशोक हो रहा था

देह पर फूट रही थीं
हरी कोंपलें
और हवा में
पक्षियों का कलरव
शोक से कोसों दूर
वह ब्रह्मांड के विजेता की तरह
सिर ऊंचा किए खड़ा था

उसे देख मुझे अशोक महान याद आया

- परमेश्वर फुँकवाल
१ अगस्त २०१८

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