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आज भी ढूँढ रही सीता
 

सब मौलिक अधिकार
न कोई दासी या क्रीता
किन्तु 'अशोक अंगार'
आज भी
ढूँढ रहीं सीता

जहाँ राष्ट्र की शान
गार्गी, उदा, हिमा, झूलन
झेल रहीं क्यों दंश
अहिल्या, पाञ्चाली, फूलन
अब तो आओ श्याम
सुना गो गंगा
भयभीता

मंचों, सदनों चौराहों पर
राम नाम जपते
गुपचुप गुपचुप अँधियारे में
छुछुआते फिरते
गुमसुम, सहमी, डरीं
बालिका, वृद्धा
परिणीता

बाहर बाहर उजले दिखते
भीतर से काले
मुँह पर दही जमाये बैठे
रक्षक रखवाले
मीठा मीठा गप्प कर रहे
परस रहे तीता।

- अनिल कुमार वर्मा 

१ अगस्त २०१८

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