अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

बड़भागी अशोक
 

ओ अशोक
तुम बड़भागी
स्वीकार करो जगती-वन्दन।

जनक दुलारी के दुख को
निर्मल शाखों से
सहलाया
धीर बँधा अबला मन को
सारे कष्टों को
दुलराया

ओ अशोक
सिय-दुखभागी
यश गाते तेरा रघुनंदन।

जीत गये त्रेता युग में
द्वापर में चीर-
हरण भोगा
क्या ऐसा भी सोचा था
मूल्यों का नित्य-
क्षरण होगा

ओ अशोक
रह हतभागी
सुनना है तुमको युग-क्रन्दन।

दिन-पर -दिन
बढ़ रहा तमस
मानवता रह-रह अकुलाती
बोधहीन जीते जाते
चिर ज्ञान पिपासा रह जाती

ओ अशोक
पथ- सहभागी
शान्त करो व्याकुल-जन-मन।

- भावना तिवारी 

१ अगस्त २०१८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter