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गुमसुम खड़ा अशोक
 

जाने किस चिन्ता में डूबा
गुमसुम खड़ा अशोक

मौन खड़ा रहता है हरदम
गीत न मौसम के गाता है
हाल पूँछती हवा अगर तो
शीश हिलाकर रह जाता है
यूँ लगता कुछ टूट गया हो
हाथों से कुछ छूट गया हो
अन्दर -अन्दर सहता रहता
पीर न मन की कह पाता है

अधरों तक आते-आते
शब्दों को लेता रोक

जीकर नित्य अभावों में भी
डिगा नहीं तिल भर स्वभाव से
ज्यों पानी में पात कमल का
अलग थलग रहता प्रभाव से
आपाधापी मेला -ठेला
सड़क किनारे खड़ा अकेला
जीवन की हर धूप छाँव को
देख रहा निष्काम भाव से

बाँच रहा हो ज्यों मन ही मन
गीता के श्लोक

फिर अतीत के संदर्भों को
वर्तमान से जोड़ रहा है
अलसाये पातों को अपने
रह -रह स्वयं झिझोड़ रहा है
स्वप्न नये फिर लगा सजाने
लगे उभरने दृश्य पुराने
बहके हुए समय के रथ को
नयी दिशा में मोड़ रहा है

लौटेंगे मौसम खुशियों के
हरने मन का शोक

- मधु शुक्ला   

१ अगस्त २०१८

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