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वृक्षमात्र नही हो तुम
 

अशोक!
वृक्षमात्र नही हो तुम!!

द्वारपाल से खड़े द्वार पर
लेते सबके मन को हर
देवलोक से दिव्यरूप ले
उतरे हो इस धरती पर

हो जन जन के
सुखदायक तुम!!

वंदनवार सजे पत्तों से
मन आल्हादित हो जाये
शीश नवाये जो चरणों में
गोद उसी की भर जाये

हो कुलसाधक
आराधक तुम!!

वनवास राम का त्रेता में
सीता का दुख दूर किया
धन्य धन्य हो गयी वाटिका
रावण का संहार किया

बने वहाँ पर
उद्धारक तुम!!

मौन खड़े हो पर मौन कहाँ
फूल-पत्तियाँ बात करें
मौसम चाहे कोई भी हो
रहते हो नित हरे भरे

संस्कृति के हो
संवाहक तुम!!

- श्रीधर आचार्य शील  

१ अगस्त २०१८

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