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बहुरूपिया बाँस
 

अरे बाँस
तुम तो
गजब के बहुरुपिया हो
अपने गाँव में सुना है
तुम्हें
डलिया, सूप, बेना
झौआ, खाँची, ढरकी
सीढ़ी, पलरी, पाटी
लाठी, डंडा, साटी
ऐसे ही जाने कितने नामों से
बुलाये जाते हुए
और तुमने हर रूप को, बनाव को
जिया है पूरे दायित्व के साथ
विवश हूँ
यह सोचने को
कि एक दिन
विकास की बीमारी
बचे-खुचों का भी
करेगी ब्रेन वाश
लोग भूल जायेंगे
सारे के सारे
तुम्हारे ये नाम
और जिन्दा रहोगे
शहरों में कला के नाम पर
गरीबों की अर्थ व्यवस्था
तुम ही हो
उनके छप्पर-छानी की
रीढ़ तुम हो
मंडप की शान हो
ब्याह में विधान हो
एक सत्य कहूँ
गुरूर मत करना
तुम न होते तो
कृष्ण, कृष्ण न होते
जिस पर उकेरा था
पहला अक्षर
वो कागज भी तुम्हीं से बना था
कटना, पिसना, गलना, दबना
क्या-क्या नहीं सहा
पूरी कायनात को शिक्षित करने हेतु
बचपन जिस झूले में झूला
वह भी तुमसे ही बना था
और यह भी जानता हूँ
अंतिम यात्रा में भी तुम साथ होगे
बाँस!
सच में तुम परम सखा हो...

- अनिल कुमार मिश्र 
१८ मई २०१५

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