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बाँसों के जंगल में
 

मन हरिल हरिल बह जाता
बाँसों के झुरमुट में
कुछ सीधे तिरछे
फँसे-कसे
इक दूजे पे लदे-फदे
बाँसों में मन
उलझ उलझ क्यों जाता है?
फूस की मड़ैया में
झील की तलैया में
शर्माती दुल्हन को
पालकी में कहार ढोयें
बाँसों के पुल पर बैठें
अमरूदों ओर आमों में खोएँ
नये बाँस की कच्ची महक में
तोतों के डैनों में
मन रम-रम जाता है
बाँस उगे तो तो भुवन बनें
छत और चौबारे बनें
बाँस उगे तो
जंगल में कुछ खुसुर फुसुर हो
बाँस उगे तो
भव सागर को तारने वाली
केवट की नाव बने
सीता की पर्ण कुटी हो
राम का धनु बाण बने
बाँस की मुरलिया से
कृष्ण का प्रेम राग
निसृत हो जाता है
सच, बाँसों के जंगल हों तो
शुष्क बने रिश्तों का भी मन
सुरभित हो जाता है

- मंजुल भटनागर 
१८ मई २०१५

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