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अरी बाँसुरी
 

अरी! बाँसुरी
ओ! जीवन की
कितनी प्यारी लगती
अधरों से लिपटी तू हर पल
जीवन गुँजित करती
जलदों से
जीवन रस लेकर
विहगों से ले कलरव
चहक-चहक कर
वन-वन उपवन
कुसुमित कर दे हर मन
विध्वंसों के विस्फोटों से
नीरव में हाय हलाहल
मानवता अब है आतंकित
त्रासद युग में कोलाहल
क्यों अंगार लिये फिरता है
सत्तापेक्षी मानव…
आखेटक की कुटिल-फाँस ले
सृष्टि में बन दानव…
मधुर रागिनी राग छेड़ दे
जीवन कुंचित पल में
यौवन रस मद घुल जाता है
सरित प्रवाह सलिल में
निरावृत जीवन काया जब
मिट्टी बन जायेगी
हो विदग्ध विरहाग्नि व्याकुल
मुरली खो जायेगी
यौवन काया, जरा देह
ये मुरली से हैं लगते
मधुर स्वरों से ही गुँजित हों
श्वासों से ही बजते

- श्रीकांत मिश्र कान्त 
१८ मई २०१५

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