अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

बाँस हरे
 

बाँस हरे
मोटे पतरे हैं
इधर उधर
छितरे छितरे हैं

तलहट तलहट
पर्वत पर्वत
झुरमुट झुरमुट
झूम रहे हैं
कागज हेतू
कारखानों से
अखबारों में
घूम रहे हैं

बाँस हरे
उघरे उघरे हैं
बाँस हरे
मोटे पतरे हैं।

सघन होत
आँगन बनि जैहें
कतरे से जंगल बिगड़े हैं
जीव जन्तु के रखवारे थे
पर्वत वन प्रांतर तड़फे हैं
बाँस घास हैं
बाँस आस हैं
बाँस ही जीवन की
तलाश हैं

बाँस झरे
सब कूछ बिखरे है
बाँस हरे
मोटे पतरे हैं।

- कमलेश कुमार दीवान
१८ मई २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter