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बाँस के झुरमुट
 
चुप खड़े बगिया किनारे पर
ये सजीले बाँस
के झुरमुट

बाँसुरी की पीर गाते है
मौन को भी गुनगुनाते है
कभी रहते है अडिग निश्चल
कभी यूँ ही डोल जाते है

कभी सप्तम स्वर मुखर होते
कभी चुप हैं कर
अधर सम्पुट

एक अलसाई दुपहरी में
दूर हरियाली की नगरी में
सहजता से रोक लेते हैं
बाँध कर पुरवा को गठरी में

कहीं रूपाकार हैं वन से
और कहीं बिखरे हैं
बस छुटपुट

- उर्मिला उर्मि
१८ मई २०१५

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