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बेले की कलियाँ
 

बहारों के शहर ने
भेजे थे जो
फूलों की डोली से
मन के आँगन में
उतरे वो सभी सपने है
कुछ यूँ महके हुए
कि !
जैसे महक रही हों बेले की कलियाँ
किसी नव-विवाहिता के जूड़े में
गुँथे गजरे की ...

सोचती हूँ कि !
हौले से उठाकर
उन तमाम महकते सपनों को
रख दूं
तुम्हारी पलकों पर
और खोल दूं सिरहाने की खिड्की
जिसके उस तरफ आँगन में
रात ने बिछा दी थी
सफ़ेद चादर मोगरे की
चाहती हूँ,
जी लो तुम इन सपनों को
कुछ इस तरह से
कि !
तुम्हारी साँसों की
भीनी-भीनी छुवन भी
रच-बस जाए
महक में इनकी
और फिर !
जब ये तमाम सपने
तुम से मुझ तलक पहुँचें
तो, शामिल हो इनमे
एक जादुई सी
मगर चीन्ही सी सुगंध
तुम्हारे प्रेम की ...

- आभा खरे
२२ जून २०१५

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