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सुधियों का बेला महक रहा
 

आतपों में खिलखिलाते
मोगरे के फूल हम

झील में परछाइयों से
झिलमिलाते दिवस बीते
बन नियति कादम्बरी की
हम रहे इतिहास पीते
शोर बच्चों-सा मचाते
छोड़ आये स्कूल हम

क्या पता कितना भरा है
इस नदी में रेत-पानी
रोज जी कर भी न समझा
जिंदगी अब तक अजानी
आंधियों में बिछ गये जो
धार पर मस्तूल हम

कुछ लकीरों से भला क्या
बेवजह करते गिला भी
प्रांत की परिकल्पना में
छूटता अपना जिला भी
सृजन के अनुकूल लेकिन
समय के प्रतिकूल हम

- डॉ. चन्द्रभाल सुकुमार
१५ जून २०१५

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