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गजरा फूल बेला
 

चाहता हूँ, मोतिया सी
तुम महकती ही रहो
उन्मुक्त सजनी
और मैं वेणी सजाऊँ
टाँक गजरा फूल
बेला से तुम्हारी

किस उमर में
हैं नहीं प्रतिबन्ध मन पर
हर उमर में
द्वार-खिड़की खोल
जीना ही चलन है
हैं असंयम पर
सदा से रोक, होती टोक
लोकाचार
मर्यादा निभाना
अनुकरण है
अंकुरित होता हुआ
उल्लास मुख पर
मोगरा की गंध सी
मोहक मदालस भंगिमा ले
खोलने लगता स्वयं
मन की किवारी

जब कभी,
अभिसार की
श्रृंगार की, बातें चलीं, तो
आ गयीं तुम
गन्ध बेला सी महकती
ले मुदित मन
और पुलकित तन
रचा मेंहदी महावर
मोतिया की ले महक
घर में बहकती
रात के संकेत सब
अनुकूल है जब
तब नहीं रसधार पर
अंकुश उचित है
बस प्रणय अपना रहे संयत
सदा आह्लादकारी

रूप भी है, शब्द भी है
गंध भी है और रसमय
है मदिर स्पर्श
मनभावन तुम्हारा
रोम हर्षित हो रहे जैसे मिला हो
मन प्रफुल्लित
प्राण को, संज्ञान का
मादक सहारा
मोतिया महका, न सकुचाओ
हमारे आँगने का
ले चमेली और
चम्पा साथ अपने
चाँदनी ने अब निशा
आकर सँवारी

-- जगदीश पंकज
१५ जून २०१५

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