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और बेला की महक है
 

धुर सुबह है
साथ तुम हो
और बेला की महक है

लॉन पर बैठे, सखी, हम
चाय के सँग बात करते
सुरज देवा आँगने हैं
रोशनी के पर्व रचते

इधर कनखी है
तुम्हारी
उधर किरणों की दमक है

घास पर है ओस
उसमें इन्द्रधनु हैं झिलमिलाते
छिपे बैठे कहीं पाखी
नेह-ऋतु के गीत गाते

हँसीं तुम
चौंकी गिलहरी
हँसी घुँघरू की खनक है

फूल तुमने हैं चढ़ाये
दीप तुलसी पर धरा है
साँस में रोमांस, सजनी
अभी भी कोरा-खरा है

उधर देखो
हवा के सँग
कर रहा बेला कथक है

- कुमार रवीन्द्र
१५ जून २०१५

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