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कुण्डलिया
 



परबत पर से झाँकते, देवदार साकार
छाता लेकर हों खड़े, जैसे पहरेदार।
जैसे पहरेदार, घेरते शीशमहल को
वैसे इनके शाख, घेरते हैं जंगल को।
पाकर इनकी गंध, पवन भी महके, सरसे
शंकुकाय ये वृक्ष, झाँकते परबत पर से।

कवियों को प्रियवर लगें, बंजारों को गीत।
देवदार के वृक्ष ये, महादेव के मीत।
महादेव के मीत, यही तो हैं कहलाते
शीर्ष शिखा के साथ, गगन को छूते जाते।
सिखलाते हैं 'रीत', उच्च रखना छवियों को
इनके गुण आकार, सदा भाते कवियों को।

रखना नजरों को सदा, उच्च शिखर की ओर
लेकिन जड़ें पसारना, थाम धरा का छोर।
थाम धरा का छोर, देवदारू ज्यों बढ़ते
अपनी क्षमता साथ, आसमानों तक चढ़ते
देवतरू के रूप, सिखाते, सदा महकना
लक्ष्य बने आकाश,'रीत' यों साहस रखना।

- परमजीत 'रीत'    
 
१५ मई २०
१६

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