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शब्दों के देवदार
 

शब्द-शब्द चुन-चुनकर
कुछ इधर-उधर
दौड़ते-भागते
शब्दों को पकड़-पकड़कर
उगा लिए हैं मैंने
शब्दों के देवदार।
रोकेंगे जो
संस्कृति के भू-स्खलन को।

आओ तुम भी उगा दो
यहाँ कुछ शब्दों के देवदार
इस बंजर, पथरीली धरती पर
जिन पर लगेंगे,
संवेदना, चिंतन, आत्मानुभूति के पुष्प
‘यूकोलिप्तिस’ की भाँति
जो समाज की खँखारती छाती से
बलगम को साफ़ कर सके।
दे सके एक स्वस्थ समाज
जिसके गर्भ से
जन्म ले स्वस्थ साहित्य
संवेदनशील, विषैली राजनीति से परे
ढाबे रहे जो
अंतर्मन तक फैली जड़ों को।
विदेशों से आती
‘पगलाई हवा’ भी जिन्हें गिरा न सके।

गदराए गुलाबों की गंध में
सरोबार हो
भूल जाएँ जो विदेशीपन
संदली गंध का अहसास
उतर आए कलम में
स्याही बन।
शब्द-शब्द कालातीत हो
छू ले क्षितिज के ओर-छोर
शब्द से शब्द उगें और बन जाएँ
कई देवदार ..
आओ, साहित्य की भूमि पर उगा दें
ऐसे ही शब्दों के देवदार।

- मंजु महिमा   
 
१५ मई २०
१६

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