अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

देव, तुम !
 

ॠषि कुल में यह ध्यान लगाये कौन
देव ! तुम अचल खड़े हो कब से
धवल रूप में मन को भाये कौन
देव ! तुम विमल
खड़े हो कब से

कौन प्रतीक्षित है इस योगी का
कैसा प्रेम अनवरत डूबा है मन भोगी का
नवल रूप में मन को भाये कौन
देव ! तुम विमल
खड़े हो कब से

जीवन का संचार तुम्हीं से है
पथरीले उपवन में प्यार तुम्हीं से है
अटल रूप में मन को भाये कौन
देव ! तुम विमल
खड़े हो कब से

सहज स्नेह का सूत्र पिरोते आये
अनुबंधों के बीज हमेशा बोते आये
सरल रूप में मन को भाये कौन
देव ! तुम विमल
खड़े हो कब से

देवदार सुन्दर तन से निश्छल मन से
पूजित हुए हमेशा जन - मन से
सकल रूप में मन को भाये कौन
देव ! तुम विमल
खड़े हो कब से

- भोलानाथ कुशवाहा   
 
१५ मई २०
१६

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter