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देवदार
 

टहनियाँ अपनी हिलाकर
रात भर संवाद करते
भाँप कर कोई अंदेशा
ये अचानक मौन धरते
छेड़ता संगीत कोई
रंध्र इनके जाग जाते
कुछ पलों को ही सही
सब भूत, भय के भाग जाते
पसरती चुप्पी हवा में
घुल गई कैसी व्यथा है
घाटियों के देवदारों की
यही अन्तर्कथा है

ये खड़े बनकर तपस्वी
वक्त के आघात सहते
पंछियों की पीर को
महसूस कर भी, कुछ न कहते
पर्वतों के साथ रहते हैं
हवा में झूमते हैं
पाँव स्थिर हैं, टहनियों के
सहारे घूमते हैं
है दरख्तों की कहानी यह,
नहीं कुछ अन्यथा है
घाटियों के देवदारों की
यही अन्तर्कथा है।

- डा. जगदीश व्योम
 
१५ मई २०
१६

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