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देवदारु की छाँव
 

मरुथल सा मन हुआ है कब से
अनमन सा मिलता है सब से
बंजारन सा ढूँढा फिरता
देवदार की छाँव कहीं।

सर-सर सर-सर गीत मगन
शाख फुनगियाँ झूलें घन
भीगूँ, ओढूँ गंध समेटूं
देवदार के गाँव कहीं।

धूप-धुंध की आँख मिचौनी
हिम कण मोती नयन बरौनी
कोई अल्हड़ हिरनी लिपटी
देवदार के पाँव कहीं।

पवन सुनाए गौरव गाथा
झुके शीश ना उन्नत माथा
विजयी पथ पर कभी न चूके
देवदार के दाँव कहीं।

- शशि पाधा  
 
१५ मई २०
१६

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