अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

सुंदर फूल कनेर के
 
क्यों हमने बिसरा डाले हैं, सुंदर फूल कनेर के।
एक समय देखे जाते थे, घर-घर फूल कनेर के।

फीकी पड़ जाती है हस्ती, सम्मुख राज गुलाब की।
गुच्छों-गुच्छों जब खिलते हैं, मनहर फूल कनेर के।

रत्न जड़ित से ऐसे शोभित, मरकत में पुखराज हो।
आभा मण्डल को गमकाते, जीभर फूल कनेर के।

बिन पानी बिन सेवा के भी, लगते पेड़ अनेक हैं।
हर मौसम में लहराते घर बाहर पेड़ कनेर के।

माँ जगदम्बा रक्त गुलाबी, पीले पुष्प गणेश को।
सित
शम्भू को चढ़ जाते, अब दुष्कर फूल कनेर के।

हरी वल्लभ शर्मा
१६ जून २०१४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter