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क्यों हमने बिसरा डाले हैं,
सुंदर फूल कनेर के।
एक समय देखे जाते थे, घर-घर फूल कनेर के।
फीकी पड़ जाती है हस्ती, सम्मुख राज गुलाब की।
गुच्छों-गुच्छों जब खिलते हैं, मनहर फूल कनेर के।
रत्न जड़ित से ऐसे शोभित, मरकत में पुखराज हो।
आभा मण्डल को गमकाते, जीभर फूल कनेर के।
बिन पानी बिन सेवा के भी, लगते पेड़ अनेक हैं।
हर मौसम में लहराते घर बाहर पेड़ कनेर के।
माँ
जगदम्बा रक्त गुलाबी, पीले पुष्प गणेश को।
सित
शम्भू
को
चढ़
जाते,
अब
दुष्कर
फूल
कनेर
के।
हरी वल्लभ शर्मा
१६ जून २०१४ |
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