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फूलों के मौसम में फिर फिर,
आ जाते कनहल के फूल।
रंग-रंग में नई उमंगें, भर लाते कनहल के फूल।
धूप-पसीने से लथपथ हो, जब जीवन बोझिल होता,
शीत-छाँव बन सुरभि स्नेह की, फैलाते कनहल के फूल।
इन फूलों से शोभित होती, घर घर पूजा की थाली,
प्रभु चरणों की शोभा बनकर, इतराते कनहल के फूल।
नन्हें हाथ पकड़ डाली जब, हसरत से छूते इनको,
बाहों भरकर उन हाथों को, सहलाते कनहल के फूल।
रातों की मृदु लोरी बनते, प्रातः की पुलकित पुरवा,
बन बहार तपती दुपहर को, महकाते कनहल के फूल।
धन्य समझता माली खुद को, सींच बाग निज हाथों से,
हर्षित होता जब गुच्छों में, लहराते कनहल के फूल।
पन्नों पर ये शब्द-चित्र बन, भाव भरे नगमें गाते,
भीगे-भीगे हर कवि मन को, हुलसाते कनहल के फूल।
फूल नहीं ये देवदूत हैं, प्राणवायु के ये दाता,
हर प्राणी को सौख्य सौंप, दुख अपनाते कनहल के फूल।
मानवता के इन मित्रों ने, लंबी उम्र नहीं पाई,
मगर “कल्पना” सदा मनस में, बस जाते कनहल के फूल।
-कल्पना रामानी
१६ जून २०१४ |
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