अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

नेर के फूलों की चमक
 
हर दिन सुबह
सूरज रख देता है
मेरी देहरी पर
इंतज़ार का बेस्वाद फल
जिसे चुगती है आँखें
थोड़ा-थोड़ा,पल-पल...!

मेरी बेचैनियों में शामिल
कनेर के पीले फूलों की चमक भी
मायूसी से मद्धिम हो गयी है
फिर भी !
कनेर की फूलों लदी
लहराती डालियाँ
मानो मुझे बाहों में भरकर
देना चाहती हों दिलासा ...!

पर मेरी देह तो जैसे
कान बन गयी है
वो सुनती है
हर वो आवाज़
जिसमे से आती हो शायद
तुम्हारे आने की आहट...!

दिन बीतने के साथ
कुम्हलाया मन
जब शाम ढलती है
तो उसी देहरी पर
जला देता है
उम्मीद का एक दिया
कि!
भोर के उजियारे में
ख़त्म हो रात इंतज़ार की
और इस आस पर
मुस्कुरा देते हैं
फूल कनेर के ...!

- आभा खरे
१६ जून २०१४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter