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कनेर: पाँच कविताएँ
 
जिजीविषा

आशाओं, दिलासाओं की विदाई के बाद
बच गया है
जीवट
वसंत के धोखे के बाद
विषमताओं के साथ बच गए हैं
पीले कनेर के फूल

साहस

धूल भरी पगडंडियों
की साँस फूल रही है
दुपहर की विरल गर्म हवा में
मिट्टी के टीले पर
दो फूल हैं
जिन्हें आश्चर्य घुली प्रशंसा से देखता है
बकरी चराता गडरिये का बच्चा

मित्रता

दूर दूर तक
वनस्पतियाँ
सर झुकाए खड़ी हैं
फूलों को खो देने के बाद
हवा कतराती है नज़र तक मिलाने से
खिड़की की चौखट से
झाँककर दरवाज़ा खटखटाता है
एक दोस्त
अपने खुले खिले पीलेपन का विश्वास
चेहरे पर लिए

प्रेम

फिर उन आहटों को
दे रहा हूँ आवाज़
फिर मन उन धडकनों को सुन रहा है
जो करती थीं बात
तुमसे मुलाकात की उस चमकीली दुपहर में
वहां बस यही एक फूल था
जिसे मैंने रोप दिया था
मेघों की घनी केश क्यारियों में
बिजलियों की तरह

यात्रा

एक चोट व्याधियों के विष वृक्ष की जड़ों में
मीठी गंध के झोंके
कसैले धुएँ के बादलों में
मखमली स्पर्श से
वक़्त के खुरदुरेपन को स्थगित करते हुए
चलता हूँ
जीवन के साथ
बहुत दूर तक जाना है मुझे।

- परमेश्वर फुँकवाल
१६ जून २०१४

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