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दूँगी फूल कनेर के
 
आना मेरे गाँव, तुम्हे मैं
दूँगी फूल कनेर के।

कुछ पक्के, कुछ कच्चे घर हैं,
एक पुराना ताल है।
सड़क बनेगी, सुनती हूँ
इसका नंबर इस साल है।
चखते आना, टीले ऊपर
कई पेड़ हैं बेर के।

खड़िया-पाटी, कापी-बस्ते
लिखना पढ़ना रोज है।
खेलें-कूदे कभी न फिर तो
यह सब लगता बोझ है।
कई मुखौटे तुम्हें दिखाऊँगी
मिटटी के शेर के।

बाबा ने था पेड़ लगाया,
बापू ने फल खाए हैं।
भाई कैसे! उसे काटने
को रहते ललचाए हैं।
मेरे बचपन में ही आए
दिन कैसे अंधेर के।

हँसना-रोना तो लगता ही
रहता है हर खेल में।
रूठे, किट्टी कर ली, लेकिन
खिल उठते हैं मेल में।
मगर देखना क्या होता है
मेरी चिट्ठी फेर के।

-अनंत कुशवाहा
१६ जून २०१४

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