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सुनता रहा कनेर
 
पीपल की हर बात
ध्यान से
सुनता रहा कनेर

खपरैलों की दुनिया में
सूरज भी
देरी से जाता है
धूप
आलसी हो जाती है
उजियारा
रोता रहता है
राह, खेत, घर, घाट
कहाँ, कब
हो जाये अंधेर

कोई गंध
हवा में फैली
बरगद की दाढ़ी
सहमी है
कुरते
बतियाने आये हैं
तेवर में
अजीब नरमी है
दूर खड़ा
टीले का टेसू
रहा किसी को टेर

ये बदलेगा
वो बदलेगा
यूँ तो
सब कहते रहते हैं
खपरैलों के दंश
हमेशा
सहने वाले ही सहते हैं
सदियाँ बीत गईं
पर, बीते नहीं
दिनों के फेर

-डा० जगदीश व्योम
१६ जून २०१४

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