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कनेर के फूल
 
खिल कर झूल रहे डाली पर
ओढे़ हरित दुकूल।
मत उदास हो, हँस कर कहते
ये कनेर के फूल।

लगे हवा के गर्म थपेडे़
सूरज अंगारे बरसाये
कहाँ जाओगे हमसे बचकर
तीखे तीखे व्यंग्य सुनाये,
बीत जायेंगे तपन भरे दिन
मत दो इनको तूल।
हर मौसम में समरस रहते
ये कनेर के फूल

डोल रहा आकुल मन
पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी
नींद चैन की आयी न,
जब से छूटी घर की माटी
कितनी पीड़ा दे जाती है
एक छोटी सी भूल।
क्यों निराश हो झुककर
कहते ये कनेर के फूल

कभी नदी का आँचल थामे
कभी छाँह बादल से माँगे
सुधि में बसा सावनी सपने
जोड़ रहा मन टूटे धागे
साथ चलें जीवन धारा के
सुख दुख दोनों कूल।
पाँवों में बिछकर भी रहते
ये कनेर के फूल।

-डॉ. मधु प्रधान
१६ जून २०१४

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