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हम कनेर हो पाते
 
सुख में, ग़म में
हर मौसम में
सिर्फ फूल महकाते
काश कहीं ऐसा हो पाता
हम कनेर हो पाते

लू के गर्म थपेड़े
लेकर भले
मृगशिरा दहके
पथरीली जमीन से भी
रस लेता है सब सहके
तना खड़ा है जग को अपनी
जिजीविषा दिखलाते

आम नाम है जिसका
उसको तो
ऐश्वर्य मिला है
आम आदमी का प्रतीक तो
बनकर यही खिला है
हम भी अपने ग़म पी
जख़्म जमाने का सहलाते

–रविशंकर मिश्र रवि
१६ जून २०१४

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