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कुड़ची फूल

 

गहरे-छितरे स्तबक से, झाँकें जुगनू झूल
चारु चंचला चंद्रिका, जैसे 'कुड़ची' फूल

अपराजित संघर्ष का, मानों एक प्रतीक
नाम-गुणों अनुरूप है, वन का वृक्ष सटीक

छाँव नहीं देता भले, यह औषधि भंडार
'कुटज' भगाये दूर पर, जूड़ी ज्वर अतिसार

मीठा बनता रोग जब, कड़वा बने हकीम
आम खुबानी से भले, 'कुटज' करेला नीम

जिजीविषा रखकर अटल, 'कुटज' जिये बिंदास
शायद मनु से सीख यह, पाता जीवन-ग्रास

बाहर कम भीतर अधिक, बूझें कैसे हाल
'रीत' हृदय औ 'कुटज' की, जड़ें बसें पाताल

- परमजीत कौर 'रीत  
१ जुलाई २०१९

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