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नीम मेरे सखा
 

 

नीम का पेड़
झाँकता है रोज मेरी खिड़की से
कुछ नहीं बोलता
मैं भी उसे लहलहाते देखती हूँ
           कुछ नहीं बोलती

शायद यह मेरा
उस नीम से नि:शब्द प्रेम है
जो सदियों से जीवित है, मेरी आत्मा में
मौन प्रेम-सा
जैसे आत्मा का परमात्मा से
लहरों का किनारों से

यह नीम प्रेम ही तो है
जो एक झौके से उसके सँवर जाती हूँ मैं
उसकी छुअन भर से खिल जाती हूँ मैं
मेरी आँखों की, मेरी साँसों की तो नीम ही औषध है

ओ नीम !
मेरे सखा ! तू लहलहाता रह
और नीम सत्व फैलाता रह -

-मंजुल भटनागर  
२० मई २०
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