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पलाश के फूल   

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धीरे धीरे बहती
सौरभ भरी भीगी बसंती पवन
छू जाती है वदन
ठीक वैसे ही
जैसे छू जाती थी केसरी रंग की बौछार
बहुत पहले

याद दिला जाती है ये बौछार
किसी देह को
किसी देह के ऊष्ण स्पर्श की
छूती है
किन्हीं अधरों को अधरों-सी

मन स्वयं डूबता-उतराता है
गुनगुने पानी में
पलाश के फूलों-सा

केसरिया खड़ग-जैसे
पलाश के ये फूल
मन में गुभ जाते हैं
और दे जाते हैं मीठी चुभन
मन में गुभ कर
फूलों की चमक
और भी निखर जाती है

भीगी बसंती पवन की वही छुअन
दिला जाती है याद उन्हीं पलों की
फिर-फिर, बार-बार…

-  राज वत्स्य
२० जून २०११

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