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          रजनीगंधा बनकर

 

 

रजनीगंधा बन कर मेरे जीवन में आई हो
महक गई रातें मेरी कुछ यों मन को भाई हो

भटक रहे हों कस्तूरी मृग
जैसे सुंदर बन में
भरे हुए हों कई स्वप्न जैसे
अधखुले नयन में
बदरी बरसा गई मेरे
जीवन में इक अमृत घट
रजनीगंधा महक उठी है
सूखे वृंदावन में
चमक चाँदनी बन कर मेरे जीवन में आई हो
चमक गई रातें मेरी कुछ यों मन को भाई हो

इक तिनका भी पार लगा जाता
डूबी नैया को
तृप्त करे इक बूँद नीर की
प्यासी गौरैया को
बदले गुण इक बूँद स्वाति की
ज्यों कदली को कुंकुम
कुंकुम भाल देख हो आया
मन ताता थैया को
कनक-कली मुखचंद्र शोभती जीवन में आई हो
दमक गई रातें मेरी कुछ यों मन को भाई हो

-आकुल
१ सितंबर २०२१

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