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          रजनीगंधा बावरी

 

 

रजनीगंधा सोच रही है
मैं भी कितनी बावरी!

जब सब सोते मैं जग जाऊँ
बैठी रातों से बतियाऊँ
मन सागर में चलने लगती
यादों वाली नाव री!

विरहन को तकती रहती हूँ
अंदर से झखती रहती हूँ
बीते कल से क्यों रखती है
इतना अधिक लगाव री!

सबके अंतःपुर घुस आती
सजनी मीठा क्रोध दिखाती
कहती-आखिर छेड़ गयी तू
पिय के हिय के भाव री!

शीतकाल तो लगे पराया
पल-पल रहे हृदय घबराया
कहूँ हवा से जा लेकर आ
थोड़ा पास अलाव री!

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
१ सितंबर २०२१

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