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          बीत गए दिन

 

 

बीत गए दिन अवसादों के
फिर महके मन रजनीगंधा
जारी जग का गोरखधंधा

जीवन सुख दुख आस निराशा
लुप्त मदारी खुला तमाशा
रंग निरंतर रहें बदलते
काल चक्र गढ़ता परिभाषा
बहरे के हित गाता गूँगा
अचरज से देखे इक अंधा
जारी जग का गोरखधंधा

जब जब अत्याचार बढ़ेंगे
तब तब मधुसूदन जन्मेंगे
भूल गए रणछोड़ वचन जब
फिर कैसे दुर्भाग्य कटेंगे
सीधे शब्द कहो ज्ञानेश्वर
नहीं समझ पाता मैं संधा
जारी जग का गोरखधंधा

बोल रही है रात महकती
उजले दिन की आमद सुन लो
भेद ख़त्म हों मन से मन के
प्यार भरी परिभाषा गुन लो
ध्वस्त करें मनसूबे रिपु के
आज मिला कंधे से कंधा
जारी जग का गोरखधंधा

- अमित खरे
१ सितंबर २०२१

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