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          तुम रजनीगंधा-सी

 

 

तुम रजनीगन्धा-सी गमक रहीं
मैं मादक गन्धों में
डूब रहा

मन ने तन के अनुपातों को तोड़ा
अहसासों की मीठी अँगडाई से
मस्ती साँसों में थिरक रही बेसुध
ज्यों मिलन कामना की शहनाई से
तुम सुरभित सपनों को सजा रहीं
मैं अपने ही तम से
ऊब रहा

वय के सारे संदर्भ उपस्थित हैं
तन-मन के समीकरण मदमाये हैं
नयनों से नयनों की भाषा पढ़कर
हम यादों के आँगन तक आये हैं
आभासी कभी कभी सच में जीकर
सम्बन्धों का मंचन भी
खूब रहा

कितने पल्लव कितने कोंपल महके
कितने फूलों से महकी अँगनाई
जीवन में जितने मोड़ घुमाव मिले
रजनी गन्धा खुशबू लेकर आई
कुछ भी आकस्मिक मिलता नहीं कभी
फिर भी जीवन हर्षाती
दूब रहा

- जगदीश पंकज
१ सितंबर २०२१

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