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          रजनीगंधा बुला रही है

 

 

अन्तर में मकरंद छिपाये
रजनीगन्धा बुला रही है

खोली सुधियों की किताब तो
कुछ गुलाब महके
संयत रही कामना के भी
भाव तनिक बहके
ताल दे रही रिमझिम बूंदें
मधुर गीत गुनगुना रही है

मृदुल गन्ध से सिक्त बावली
झूम रही डाली
कभी चाँदनी की चूनर को
ओढ़े मतवाली
ग्रन्थि खोल कर अवसादों की
मन सुमनों को खिला रही है

लरज-लरज अधरों पर आई
मन की अभिलाषा
प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाये
चंचल प्रत्याशा
लहराते जल में चन्दा की
छवि बनकर झिलमिला रही है

- डॉ मधु प्रधान
१ सितंबर २०२१

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