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          रजनीगंधा फिर खिलाएँ

 

 

हो चुके जो कालकवलित
रिश्तों को फिर से जिलायें
रजनीगंधा फिर खिलायें

याद हैं वे दिन सुहाने
स्पर्श ही जब बोलते थे
सिर्फ पोरों की छुअन से
भेद मन के खोलते थे
तन को करते जो सुवासित
स्पर्श वे सब खोज लायें

धुन्ध लुभाती थी जो हमको
रिश्तों पर अब छा रही है
प्रीतियुक्त संबोधनों में
शीत बसती जा रही है
मन को करते जो तरंगित
गीत फिरसे गुनगुनायें

तोड़ डालें पुल वे सारे
दिलसे दिलको जोड़ते थे
खो गए वह सुर जो हर क्षण
कान में रस घोलते थे
साध लें रिश्तों की डोरी
नये सिरे से पुल बनायें

- सरस दरबारी
१ सितंबर २०२१

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