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          बाढ़ चुनौती है

 

 

बाढ़ चुनौती है
अच्छे दिन कब आएँगें
उन रजनीगंधों के

सूरज छिपा जलद-कोटर में धूप पराई है
नहीं हिली पेड़ों की डाली हवा लजाई है
थोड़ी रिमझिम हुई कि टूटे
पाये लंबे हँसमुख बंधों के

शहर-गाँव सब डूब गए हैं बाढ़ चुनौती है
कट जाए यह रात ठीक से यही मनौती है
पिरा रहे हैं अंग नकचढ़े
भूख-प्यास से जागे कंधों के

दह में डूब गई है खेती धान उदासा है
छानी के छप्पर पर ठहरा फूस जरा सा है
मजदूरी बैठी है घर पर
मन उदास हैं ठण्डे धंधों के

नगरपालिका पंचायत की आँखें फूटी हैं
बहे मवेशी और सड़क की पाँखें टूटी हैं
नैन खुलेंगे कब समाज के
राजनीति के
लंपट अंधों के

- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
१ सितंबर २०२१

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