अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

खिल रहा उन पर शिरीष
 

सचमुच एक पहेली लगते
ये शिरीष के फूल

कोमल, तितली के पर का भी
उठा न पाते भार
पर सूरज से आँख मिलाते
नहीं मानते हार

कड़क धूप में तन कर रहते
ये शिरीष के फूल

तपती धरा सुलगता अम्बर
मौसम की मनमानी
रिमझिम-रिमझिम बूँदों की भी
अपनी अलग कहानी

दुनिया रंग-रँगीली कहते
ये शिरीष के फूल।

जी करता गायें, बतियाएँ
बैठ सिरस की छाँह
झूला झूलें थामें फिर से
इक दूजे की बाँह

बिछुड़ी हुई सहेली लगते
ये शिरीष के फूल

यह दुनिया, चलता रहता है
सबका आना-जाना
जब तक तन है नहीं भूलना
भीनी महक लुटाना

अवधूतों से स्थिर रहते
ये शिरीष के फूल

- मधु प्रधान

१५ जून २०
१६

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter