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अचरज बंधु आठवाँ सच में
 

लकड़कटों की नगरी में
हरियाली का रोना
अचरज बंधु आठवाँ सच में
है शिरीष होना

परूष बदन मलखंभ सरीखा
ग्रीषम के सायक
झेल रहा है समरभूमि में
दलविहीन नायक

प्रजावत्सला छाया से
पूरित मन का कोना

अपनी मिट्टी से जुड़ना भी
हुआ जहाँ अपराध
उपनिवेशवादी मौसम में
साधु-साधु यह साध

बाँट रहा है हर झोंके को
खुशबू का दोना

अनचीन्हों को गंध और
शीतल छाया का दान
देकर स्वयं पल्लवन पुष्पन
शरणागत का मान

सदियाँ बीतीं गगन तले
बारहमासे सोना

- रामशंकर वर्मा

१५ जून २०
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