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शीशम (कुंडलिया)
 
(१)
मस्त पवन संग डोलता, रहा कभी छतनार
बूढ़ा शीशम द्वार पर, आज खड़ा बेज़ार
आज खड़ा बेज़ार, न कोई पूछे पानी
अपनी ही धड़कने, लगें उसको अनजानी
कहते कवि शैलेन्द्र, भेदती उसका तन-मन
बनकर तीक्ष्ण कृपाण, समय की मस्त पवन

(२)
पहले चलीं कुल्हाड़ियाँ, फिर आरी के वार
रंदे पर रंदे चले, शीशम था छतनार
शीशम था छतनार, सुखद देता था छाया
थी कलरव की भीड़, सभी के मन को भाया
कहते कवि शैलेन्द्र, कष्ट कैसे यह सह ले
थे अपने ही 'बेंट', चले जो सबसे पहले

(३)
जैसे थे वैसे रहे, पहले जैसे ठाठ
हाँ, पहले थे हरे, अब कहलाते काठ
अब कहलाते काठ, रुप हैं जिसके न्यारे
सोफा-मोढ़ा-मेज, अंग शीशम के सारे
कहते कवि शैलेन्द्र, बदलती फितरत कैसे
आते सबके काम, आज हम पहले जैसे

- शैलेन्द्र शर्मा
१ मई २०१९

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