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मैं भी हूँ शीशम
 
होने को तो हो जाए जी
मौसम नरम-गरम
मैं कब मरियल मैं भी अड़ियल
मैं भी हूँ शीशम

धूप सहूँ बरसात झेलता
मौसम गरम-सरद
जहाँ खड़ा था वहीं खड़ा,
कब भटका बन नारद
घुन की क्या मजाल जो
मेरे तन पर छेद करे
हूँ कठोर
पर मेरी आँखें
भी होतीं हैं नम

दुख की दीमक
दाँत गाड़कर खुरचे सिर्फ सतह
घुन-दीमक के
दाँव-पेंच से रहता हूँ निस्पृह
छोटी-मोटी घातें सहकर
मैं मुसकाता हूँ
मेरा नाश
तभी संभव जब
पड़े बज्र निर्मम

मैं हूँ ठल्ल-गँवार
भला क्या जानूँ सृजन-वृजन
कद-काठी का ठोस
कहाँ मैं समझूँ भावुक मन
पर प्रस्तुत कर देता
खुद को
सुघड़ शिल्प के हित,
कटने-छिलने का रखता हूँ
रोम-रोम में दम

- पंकज परिमल 
१ मई २०१९

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