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वो शीशम की छाँह
 
बुला रही है
हमको फिर से
वो शीशम की छाँव प्रिये

चलो त्याग दें आज अभी से
लोभ कपट की क्यारी को
चलो सजाएँ अपने घर-सा
वसुधा की फुलवारी को
थकी हुई
आसों को हासिल
हो जाए फिर ठाँव प्रिये

डर लगता है राजपथों के
विषधर साँप-सँपेरों से
डर लगता है सुलग रहे
हरपल नफरत के ढ़ेरों से
चलो बसाएँ
अलग कहीं इन-
सबसे अपना गाँव प्रिये

चलो बहा दें दरिया में
रंजिश के सब हथियारों को
चलो बुझा दें मानवता के
दुश्मन सब अंगारों को
राजनीति के
लू में जलने
लगे हैं अपने पाँव प्रिये

- शंभु शरण मंडल 
१ मई २०१९

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